बचपन का नशा कुछ और था
बेफ़िक्री का वो एक हसीन दौर था
बेख़बर थे हम ऊँची उड़ानों से
बस बेख़ौफ़ कूद जाते थे एक दूसरे के मकानों से
दूसरों के खाने के डब्बों में ताँकझाँक करना
दोस्तों की चीजों को हक़ से अपना समझना
पड़ोसी के घर से कटी हुई पतंग लूट लाना
डाँट पड़ने पर दिल का शीशे सा टूट जाना
माँ की आँखों का वो डर हर पल
होश ना रहती थी आज है या कल
पापा की एक आवाज़ पर यूँ सिहर के काँप जाना
बुलाने पर सहमे क़दमों से उनके पास आना
एक छोटी सी टॉफ़ी पर बाँछें खिल जाना
जैसे दुनिया की बेशुमार दौलत हमें मिल जाना
वक़्त बेवक्त पर दोस्तों को चुपके से आवाज़ लगाना
उनका माँ की नज़रों से छुप कर चोरी से चले आना
मार खाते हुए फिर बहाने हज़ार बनाना
आज की खाई मार कल आसानी से भूल जाना
दोस्तों की मुस्कुराहट से चोट पे मरहम लगाना
नहीं सीखा था तब हमने आंसूयों की क़ीमत लगाना
धर्म की समझ थी ना मज़हब की दीवार
देखते से रिश्तों को बस दिलों के आरपार
सेवियाँ और खीर में फ़र्क़ ना करना मालूम था
बस दोस्तों के लिए बेधड़क मर मिटना हमें क़ुबूल था
कोई खेल हो बस मैदान में कूद पड़ते थे
हारे या जीतें बस दुश्मनों पर टूट पड़ते थे
धूप की फ़िक्र रहती थी ना ढलती शाम का डर
खेल में हो जाते थे यूँ ही दिन गुज़र
वक़्त बीत गया बस अब चन्द यादें रह गयीं
आँखों में ना जाने कैसी एक नमी सी दे गयी
एक एक कर दूर हुए जो कभी हमको अज़ीज़ थे
अब फ़ासला मीलों का है उनसे जो दिल के कभी क़रीब थे
हाँथो पर बंधी घड़ी में वक़्त अब इस क़दर क़ैद है
पहुँचती नहीं हमारी आवाज़ जो उनके लिए आज ग़ैर है
कभी ना भूल पाएँगे वो मौज मस्ती से भरे दिन
वो मासूमियत वो भोलेपन भरे हसीन पलछिन
एक पल दुश्मनी दूसरे में दोस्ती की मिसाल थे
बचपन के वो हसीन दिन कितने बेमिसाल थे