कहते हैं ख़्वाबों की मियाद महज़ एक रात की होती है। जैसे ही सूर्यदय होता है , वो किसी अंधेरे कोने में विलीन हो जाते है या टूट कर बिखर जाते है । कभी वो सूरज की किरणों में झुलस कर नष्ट हो जाते हैं। शायद तभी तुम्हें ख़्वाब कहा जाता है । तुम अक्सर रात के अंधेरों में जन्म लेते हो । कुछ लोग खुली आँखों से तुम्हें देखते हैं। मैंने भी देखा और उसे मुक्कमल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।तुम इश्क़ थे मेरे, मेरी इबादत भी। दिलों -जान से चाहा था मैंने तुम्हें।बचपन से ही ख्वाहिश थी मुझे आसमान छूने की ।मुझे याद है तुम्हारा जन्म कब और कहाँ हुआ था।मेरे मन में तुम इस तरह घर कर गए थे कि सोते जागते मैं खुद को आसमान में उड़ता हुआ देखती थी । तब मैंने हवाईजहाज़ सिर्फ़ पुस्तकों में ही देखा था। उन दिनों तो टेलिविज़न भी नहीं था हमारे घर में। आज सोचती हूँ कि इतना बड़ा सपना देखने की हिम्मत मुझ में आख़िर कहाँ से आई। पर कहते हैं ना किसी चीज़ को शिद्दत से चाहो तो पूरी कायनात तुम्हें उससे मिलाने की साज़िश करती है। (शाहरुख़ खान ने ये डायलोग तो बहुत बाद में बोला , इसपर अमल तो मैंने बहुत पहले कर लिया था)। ख़ैर अब देखते हैं मैंने तुम्हें कब संजोया।
हम बचपन में खड़गपुर में रहा करते थे। कॉलोनी में तरह तरह की प्रतियोगिताएँ होती थी। जब मैं क़रीबन ११/१२ वर्ष की रही हूँगी तब fancy dress की प्रतियोगिता हुई। हमारी मम्मी हमारी बहुत हौसला अफजाई किया करती थी। पहले, आज की तरह बाज़ार से ख़रीद कर लाने की सहूलियत नहीं होती थी। मम्मी घर में ही सब तैयार करती थी। ना जाने ८० के दौर में मैंने एयरहोस्टिस कहाँ देख ली थी, वो भी Emirates Airlines की। उनकी पौशाक बहुत अनोखी हुआ करती थी। बिस्किट रंग की छोटी सी ड्रेस और सिर पर एक टोपी और स्कार्फ़। मैंने ज़िद्द पकड़ ली थी की मुझे बस वही बनना है। ज़िद्द मेरी और शामत आयी बेचारी मम्मी की । पर वो भी धुन की पक्की थी। वो नहीं चाहती थी कि उनकी तीनों बेटियाँ किसी भी क्षेत्र में पीछे रहें या मात खाएँ। बस किसी मैगज़ीन में से मम्मी ने कटाई निकाली और दिन रात एक करके मेरी पौशाक हूबहू तैयार कर दी । मुझे याद है उसे पहन कर मैं कितना इतराई थी, सच में मेरे पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे । मैं आसमान में उड़ रही थी, मैंने पहला कदम तुम्हारी ओर बढ़ा लिया था।
फिर वो प्रतियोगिता हुई और मैं दूसरे स्थान पर आई। मुझे याद है मैं ख़ुशी से पागल हो गई थी। मुझे तुम सच होते दिखाई दे रहे थे। मैंने जिया है तुम्हें जी जान से। बस वो दिन और मुझे पता था मुझे क्या करना है। मुझे तुम्हें पाना था किसी भी हाल में। वक्त बीता, और देखते देखते मैंने बारहवी पास कर ली। कॉलेज में दाख़िले के फ़ॉर्म भरे और मैंने Air-India में भी फ़ॉर्म भरा एयर होस्टेस के लिए । भगवान से मैं दुआ कर रही थी कि मेरा चयन हो जाए। सब कुछ तो था, अच्छी क़द-काठी, अंग्रेज़ी भी अच्छी बोल लेती थी, साड़ी पहननी भी आती थी। मैंने इंटरव्यू
के तीन स्तर पार कर लिए। मुझे लगा मैंने तुम्हें आख़िर पा लिया । पर कहते हैं ना कभी भी हाथ में आने से पहले ख़ुशी नहीं मनानी चाहिए, वही हुआ। तुम टूट कर बिखर गए। और तुम्हारे साथ मैं भी। कारण था मेरा चश्मा पहनना। मैं कितने दिनों तक रोती रही। तुम मेरे क़रीब आकर , मुझे छू कर गुज़र गए। मैंने तुम्हें मुट्ठी में बांधने की नाकाम कोशिश की। मेरे सपनों की अर्थी उठ गयी, मुझे ऐसा महसूस हुआ। तुम्हें खो कर मैं बाबत दिनों तक उदास रही।
कुछ वक्त बीता और मैंने मन को समझा लिया कि ज़िंदगी में हर सपना पूरा हो ज़रूरी नहीं। पर तुम भी कहाँ मानने वाले थे। तुम्हें तो मज़ा आ रहा था मुझे चिड़ाने में। एक बार फिर उम्मीद लेकर तुम चले आए । मैंने तुम्हें पाने की ख्वाहिश में एक नई airlines के फ़ॉर्म भर दिए। और क़िस्मत की बात देखिए वहाँ भी मेरा तीसरे स्तर तक चयन हो गया। Airlines थी Modiluft जिसका मुख्य-कार्यालय बैंगलोर में था और मैं दिल्ली की वासी थी। मेरा नियुक्ति पत्र आ गया और मुझे पंद्रह दिनों की ट्रेनिंग के लिए जर्मनी जाना था। मुझे अपनी क़िस्मत पर विश्वास नहीं हो रहा था। तुम्हें मैंने आख़िर पा लिया। तुम मेरी मुट्ठी में थे और मुझे खुद से ही जलन होने लगी थी। भारत के प्रमुख फ़ैशन डिज़ाइनर रोहित बाल ने हमारी यूनफ़ॉर्म बनाई थी। मुझे आज भी वो दिन याद हैं। दिल्ली के ताज होटेल में हमारी उनके साथ मीटिंग होती थी। एक बेहद खूबसूरत लाल रंग की यूनफ़ॉर्म थी। पहन कर मैं कितना इतराई थी। तुम आख़िर सच होने की कगार पर थे। खुद को मैं भाग्यशाली समझ रही थी। पर कहते हैं ना कि कभी -कभी खुद की नज़र लग जाती है। तुम्हें मेरी नज़र लग गई।घर में उत्पन्न हुई कुछ परिस्थितियों के कारण मैं ये नौकरी नहीं कर सकती थी। मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था अपनी क़िस्मत पर। पर होनी को कौन टाल सकता है। एक बार फिर तुम चकनाचूर हो कर मेरे आसपास बिखर गए और तुम्हारे साथ मैं भी। तुम मेरे क़रीब होकर भी कितने दूर थे, अपने होकर भी बेगाने बन गए थे। तुम्हें पाने की मेरी ख्वाहिश क्यूँ पूरी नहीं हो रही थी वो भगवान को ही पता है। मुझे तो बस इतना पता था कि मेरा सपना फिर टूट गया, कभी ना जुड़ने के लिए। बस वो दिन और आज का दिन। मैंने दोबारा फिर कभी कोशिश नहीं की। नाकामयाबी के डर से नहीं।मैं तुम्हें बार-बार टूटने नहीं दे सकती थी। तुम मेरी क़िस्मत में नहीं थे शायद।
इस बात को अब तीन दशक बीत चुके है। एक टीस मन में अभी भी रहती है। क़िस्मत से मुझे कोई गिला नहीं है पर रह रह कर तुम मेरे अंतर्मन को झँझोड़ देते हो। मैं ये नहीं कहती कि मेरा तुम पर विश्वास उठ गया। शायद तुम मेरे लिए कोई और दिशा चाहते थे। हक़ था तुम्हारा। आज ज़िंदगी के जिस पड़ाव पर हूँ , मैं खुश हूँ। तुमने भी मेरा साथ नहीं छोड़ा, बस दिशा बदल दी। बस इतना कहना है मुझे ,
टूटे हुए ख़्वाबों को ना रखना सम्भाल के
छलनी कर देंगे दिल को और तुम्हें ख़बर भी ना होगी।
टूटे हो पर फिर भी मेरे अपने हो। खुद को जुदा नहीं कर पाऊँगी तुम्हें। सपने हो पर अपने हो।जैसे कोई अपने पहले प्यार को नहीं भूल सकता, मैं भी तुम्हें कभी भूल नहीं पाऊँगी। ज़िंदगी की भाग दौड़ में शायद मैं मसरूफ हो जाऊँ पर तन्हाई में तुम अक्सर मेरे ख़यालों में आते हो और दिल में एक हूक छोड़ जाते हो।
तुम्हारी
निशा
Loved reading every bit of it. So many people will relate to this. We all dream, chase n almost achieve but then realize that destiny has its own plans. Superbly expressed.
Thanks a lot Chhaya for reading the article. We all have compromised and let go of our dreams some point in time.